Jan 25, 2013

कानून, समाज और नागरिक सब “अंधे और आलसी”



मोरक्को के ग्रामीण क्षेत्र में 10 महीने पहले एक नाबालिग लड़की(16 साल) के साथ 25 वर्षीय लड़के ने बलात्कार किया था। उस लड़की का नाम था अमीना। बलात्कारी लड़के के खिलाफ कोई मुकदमा नहीं चलाया गया, क्योंकि वह बलात्कारी अमीना से शादी करने को तैयार हो गया था। अमीना का परिवार भी इस बात के लिए राजी हो गया और उस मासूम की शादी उसी के बलात्कारी के साथ कर दी गई या यूं कहें कि उस बलात्कारी को अमीना के साथ बलात्कार करने का लाईसेंस दे दिया गया। किसी ने अमीना से एक बार भी उसकी मर्जी नहीं पूंछी। किसी तरह उस बलात्कारी के साथ 7 महीने गुजारने के बाद उस 16 वर्ष की बच्ची ने खुद को उस दरिंदे की कैद से आजाद कर लिया। उसने आत्महत्या कर ली। उसने भी एक अपराध किया लेकिन उसके इस अपराध से किसी को कोई कष्ट नहीं हुआ।  
मां-बाप, समाज और कानून ने अपना-अपना फायदा देख कर अमीना को एक खिलौना की भांति उस बलात्कारी को सौंप दिया। किसी ने एक बार भी उस मासूम को इंसाफ दिलाने की नहीं सोची।
हमारे भारतीय समाज की भी तो यही तस्वीर है। शायद वहां के लोगों की भी यही सोंच होगी जैसी भारतीय समाज के लोगों की है। यहां जिस तरह से मां-बाप लड़की को बोझ मानते हैं और जब तक शादी न कर दें तब तक उनके माथे से चिंता की लकीरें नहीं हटती उसी तरह अमीना के मां-बाप ने भी सोंचा होगा कि आज नहीं तो कल इसकी शादी करनी ही है। और वैसे भी अब इससे कौन शादी करेगा?...अच्छा होगा जो ये बला सिर से टल जाए।
हम खुद को संवेदनशील कहते हैं, क्या वाकई हम संवेदनशील हैं?...हमें संवेदना का अर्थ भी पता है?...एक लड़की के साथ दुराचार किया जाता है और हम दुराचारी का साथ देते हैं। हम क्या उसके मां-बाप भी सब कुछ शांतिपूर्वक निबटाने के लिए उस दुराचारी के साथ खड़े हो जाते हैं। कानून तो पहले से ही अंधा है और अंधा ही नहीं आलसी भी है। खुद ही सब कुछ निबटा लो कानून को कष्ट मत दो। लेकिन क्या किसी भी व्यक्ति ने एक बार भी उस मासूम के बारे में सोंचा...किसी ने भी उसकी हालत जानने की कोशिश की...क्या किसी ने ये सोंचा कि उस लड़की के साथ नाइंसाफी हो रही है...उसका मन टटोलने की जरूरत किसी ने समझी...क्यों उसे अकेला छोड़ दिया गया जब उसको जरूरत थी हमारे सहारे की...क्यों किसी ने उसकी संवेदना, मानसिक एवं शारीरिक पीढ़ा को नहीं महसूस कियाक्यों….????
मैं इस घटना के बारे में जानकर बेहद व्यथित हूं। हलांकि मोरक्को ही नहीं, हमारे समाज की भी यही हालत है। हमारे समाज ने आज तक किसी भी बलात्कार की शिकार लड़की को दुबारा नहीं अपनाया। बिना किसी गलती के हम अपनों को सजा सुना देते हैं। और हम में से कई चाहकर भी किसी ऐसी लड़की का साथ नहीं देते क्योंकि हम डरते हैं उस समाज से जो हमारा खुद का बनाया हुआ है। और कुछ नहीं लिखना मुझे अब..........
हां एक बात और, मैं बार-बार उस लड़की का नाम ले रहा हूं लेकिन उस बलात्कारी का नहीं, क्योंकि मैंने कभी भी यह नहीं माना या सोंचा कि किसी लड़की के साथ बलात्कार होने से उस लड़की की इज्जत लुट जाती है या उसके परिवार का मान-सम्मान चला जाता है। बल्कि मैं तो बलात्कारी को कुल्टा, कलमुंहा और ना जाने क्या-क्या मानता हूं। उस दरिंदे के परिवार के मान-सम्मान के खातिर मैंने उसका नाम नहीं लिया। आप मेरे इस तर्क पर हंस सकते हैं लेकिन मैं अपनी सोंच को छुपाने में विश्वास नहीं रखता।

Jan 9, 2013

वे भाई क्यूं माने, हम बहन नहीं मान सकते???...

 “…ताली दोनों हाथों से बजती है। कहीं न कहीं लड़की का ही दोष है, वह चाहती तो उन दोषियों में से किसी को भी भाई कहकर उनके हाथ-पैर जोड़ सकती थी।…”



उपरोक्त पंक्तियां महान साधु, माननीय श्री आसाराम बापू जी के उस बयान से ली गई हैं जो उन्होंने दिल्ली गैंगरेप पर दिया है।
माफ करना यदि मैं कुछ गलत कह दूं लेकिन आसाराम के इस बयान से ऐसा लगता है जैसे आसाराम ने ही भेजा हो उन लोगों को यह कहकर कि यदि वह लड़की भाई कहे और हाथ पैर जोड़कर अपनी इज्जत की भीख मांगे तो छोड़ देना। बहरहाल यह तो सच नहीं हो सकता,यह तो सिर्फ मेरी कल्पना है। बापू के भक्तों से गुजारिश है कि कृपया मुझ पर कोई केस ना ठोंक दें।
लेकिन बापू जी लड़कियां तो वैसे भी बदनाम हैं भाई कहकर संबोधित करने के लिए। और फिर लड़कियां ही हमें भाई क्यों माने या कहें, हम लड़कों को भी तो उन्हें बहन मानना चाहिए।
वैसे आसाराम जी अभी तक कहाँ सोए थे आप?...उस केस को हुए तो तीन हफ्ते से भी ज्यादा समय बीत चुका है और वह आत्मा भी अपने घायल शरीर को एक हफ्ता पहले ही छोड़ चुकी है। खैर छोड़ो इस बात को...दिस इज नॉट अ डिबेटिंग मैटर...आसाराम जानते हैं कि जब जागो तभी सवेरा
लेकिन आसाराम का यह बयान सवेरा नहीं बल्कि समाज को उसी अंधेरे की ओर ढकेल कर रहा है जिससे कि हम सदियों से जूझ रहे हैं। जहां एक तरफ लगभग 90 फीसदी मेट्रोपोलिटन्स अपने शरीर पर पुलिस के लाठी डंडे खाकर भी एक अजनबी के लिए न्याय की मांग पर अड़े हैं और समाज भी उस मासूम के साथ किए गए इस कुकृत्य के लिए खुद को धिक्कार रहा है वहीं दूसरी तरफ कुछ साधु-संत, नेता और समाज सुधारक टाइप के लोग अपनी जड़ता से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं।
समाज जान गया है कि वह कोई अजनबी नहीं बल्कि उसका ही हिस्सा है उसके साथ जो हुआ उससे उस मासूम की इज्जत नहीं गई है बल्कि समाज की प्रतिष्ठा को ही चोट पहुंची है। यह समाज अब अपनी परिवर्तन विरोधी मानसिकता के दलदल से निकलकर, स्वच्छ एवं भली सोंच की कठोर समतल जमीन पर अपने पैर जमाने की कोशिश कर रहा है। देश एक बड़े बदलाव एवं सुधार की आशाओं का दीपक जलाए बैठा है। ऐसे में आसाराम उस दीपक की लौ को फूंक मार कर बुझाने की कोशिश कर रहे हैं।
आखिर क्यों धर्म और समाज के ये ठेंकेदार समाज में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं होने देना चाहते हैं?...जब भी हम अपनी आनुवांशिक बुराइयों को खत्म करने की कोशिश करते हैं, हर बार ये लोग उसे दबा देते हैं या दबाने की कोशिश करते हैं...क्यों?...
एक वजह जो बिल्कुल साफ है, वो यह कि इनके जैसे कुछ लोग जो धर्म और अध्यात्म के नाम पर जो अंधविश्वास का अपना व्यवसाय चलाते हैं उसे ये बंद नहीं होने देना चाहते हैं। इन्हे अच्छी तरह मालूम है कि यदि भारतीय समाज और इसके लोगों की सोंच एवं मानसिकता में कुछ बदलाव आया तो रोज जो ये सत्संग की दुकान लगा कर बैठते हैं वो हमेशा के लिए बंद हो जाएगी। फिर भोले-भाले लोग जिन्हें गुमराह कर उनकी मेहनत के पैसे भेंट में लेकर अपनी जेबें गर्म करते थे, वो भी मिलने बंद हो जाएंगे और ये गुरूमहात्मा भी आम-आदमी बन जाएंगे। मैं अपील करता हूं कि अब हमें इन ढोंगियों के जाल से बाहर निकलकर इनके साम्राज्य को ध्वस्त कर देना चाहिए नहीं तो ये इसी तरह हमारा यूज करते रहेंगे....